फ्रांस की राजधानी पेरिस में दुनिया के 196 देशों ने धरती के अस्तित्व को
विनाश के खतरों से बचाने के लिए जलवायु परिवर्तन समझौते पर सहमत हुए।

  जिसमें विकसित देश अपनी गलती को न मानते हुए स्वयं की जिम्मेदारियाँ
विकासशील देशों पर डालने की कोशिश कर रहे थे । जहरीले गैसों के उत्सर्जन को कम
करने की पहल सभी ने की ।

 सभी देशों ने इक्कीसवीं सदी के अंत तक 2 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान कम करने का
वादा किया है।


जी 77 विकासशील देशो ने मिलकर विकसित होने के लिए विकसित  देशों से निवेदन कर
रहे है कि उन्हें विकसित होने तक सीबीडीआर के सिद्धांतों व संयुक्त राष्ट्र
जलवायु संघ कानूनों से बचने की कोशिश कर रहे है । बुद्धिजीवियों की श्रेणी में
होने के बावजूद कुतर्क दे रहे है।

अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने कहा कि -  पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता विश्व के
लिए " निर्णायक बिंदु "  है यह धरती ग्रह को बचाने के लिए मानवता के समक्ष "
सर्वश्रेष्ठ अवसर " प्रस्तुत करता है।    परिणामस्वरूप उम्मीद है कि पृथ्वी का
आकार बेहतर होगा।


प्रत्येक पाँच वर्षों में तापमान को नियंत्रित करने के लिए समीक्षा की जाएगी ।

 हवा का प्रदूषित होना दुनिया के लिए सबसे खतरनाक है । प्राथमिक रूप से
कारखानों, वाहन, रेल, विमान, पानी जहाज, निरंतर खदानों की खुदाई के अलावा बहुत
से कारणों से वातावरण में जहरीली गैसें उत्सर्जित हो रही है।

 अप्रत्यक्ष रूप में खेतों में रासायनिक जहर का उपयोग करना, पेड़ों की कटाई,
बाँधों का निर्माण, शहरीकरण, सड़कों, रेल्वे रूट के आवश्यकता से ज्यादा
निर्माण करने आदि के साथ अन्य बहुत सारी अमानवीय  कारण कारणों से धरती का
पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है।

 उपस्थित सभी देश अपने वैश्विक उत्सर्जन को कम करने के लिए जल्द से जल्द  सहमत
हुए तथा दूसरी तरफ आधुनिक विकास के नाम पर विकसित देशों के उत्सर्जन तक ले
जाने की कोशिश करेंगे


 सभी देशों ने इक्कीसवीं सदी के अंत तक याने 85 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद
दुनिया में मात्र 2 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान कम करने का वादा किया है। इन
मुर्खों को मालूम होना चाहिए कि जिस प्रकार से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो
रहा है उस हिसाब से आने वाले केवल 20 वर्षों में दुनिया के तापमान में 12%
अर्थात 4 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ़ना तय है।

दुनिया के बुद्धिजीवियों कैसी बुद्धि चला रहे है। 85 वर्षों तक अर्थात 4
पीढ़ियों तक का इंतजार करने के बजाय सभी लोग प्रतिवर्ष एक- एक पेड़ लगाये केवल
5 वर्षों के बाद ही 24% अर्थात दुनिया का तापमान केवल 30_38 डिग्री सेंटीग्रेड
रह जाएगा। क्योंकि किसी भी स्थिति में किसी भी एक पेड़ के नीचे हमेशा 3% तापमान
कम रहता है।


 यह समझौता 2020 तक लागू होगा जिसके तहत 180 देशों को तत्परता से काम करने के
लिए चिन्हित किया है। इसके लिए विकासशील देशो की गरीबी मिटाने और पर्यावरण
संतुलन बनाने के लिए आर्थिक मदद के लिए विकसित देशों को मिलकर प्रतिवर्ष 100
अरब डॉलर अर्थात 6 लाख करोड़ रुपये की वित्त सहयोग करना है ।

 इसका सीधा सा मतलब है कि विकसित देशों का पैसा विश्वबैंक के माध्यम से
 विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के समझौते के अनुसार पर्यावरण सुधार के
नाम पर कर्जा देना और बदले में आने वाले 50 वर्षों तक ब्याज के रूप में
प्राकृतिक संसाधनों दोहन करना।

विकसित देशों को अपने देश में कार्मिको से कर्ज लेना ज्यादा अच्छा है भारत में
लगभग 4 हजार सांसद/ विधायक, 4 करोड़ शासकीय व 20-22 करोड़ लोग प्राईवेट सेक्टर
में कार्यरत है ।

भारत सरकार इन अपनों से केवल एक माह का वेतन भी कर्ज के रूप में ले तो एक ही
बार में लगभग 15 लाख करोड़ रुपये अर्थात विश्वबैंक के कर्ज से 9 लाख करोड़ रुपये
अधिक वह भी भारत भूमि को गिरवी रखे बिना आसानी से ले सकते है ।


वैसे भी पर्यावरण की सुरक्षा के लिए पैसों की जरूरत ही नहीं है पेड़ लगा नही
सकते तो कोई बात नहीं जो बचे है उनका संरक्षण हो जाए दूसरी तरफ जहरीली गैसें
उत्सर्जित करने वाले वाहनों का उपयोग कम हो जाए।


दुनिया के विकासशील देशो में जितने भी अनावश्यक कंपनियों के कारखाने चल रहे है
अधिकतर विकसित देशों के है उनको बंद करके छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए।


 रही बात भारत की , जलवायु परिवर्तन समझौते में शामिल होकर पर्यावरण सुधार की
आढ़ में 6 लाख करोड़ रुपये विश्वबैंक से व बुलेट ट्रेन के लिए लगभग इतने ही
करोड़ रुपयों  का कर्जा जापान से आने वाले 50 वर्षों के साझेदारी के समझौते की
शर्त पर लेने के लिए उतावला हो रहा। विशेष लोगों के मुँह से लार टपक रही है।

एक और जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में पर्यावरण बचाने हेतु डिंगे मारना दूसरी तरफ
बुलेट ट्रेन से लाखों किसानों की जमीनें छिनना, विदेशों में कोयला बेचने के
लिए 500 नई और खदानों की खुदाई व छोटे बड़े लगभग 600 नये बाँधों के निर्माण व
200 स्मार्ट सिटी के निर्माण के प्रस्ताव पारित करना सरकार पर्यावरण की विरोधी
है या पक्षधर है?


 फिनलैंड के पर्यावरणविद्  मार्को उलविला ने कहा है।  दुनिया के विशेष लोगों
को कहा है कि जलवायु परिवर्तन समझौता गरीब लोगों को बेवकूफ बनाने के अलावा कुछ
भी नहीं है ।
अगर वास्तव में दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से बचाने की दिली इच्छा है
तो भारत के छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की जीवन शैली

को अपना लो दुनिया की सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। और इसमें किसी भी
प्रकार के कर्ज लेने जरूरत नहीं है।

 क्योंकि जितनी अधिक आदिवासियों की समस्याएँ बढ़ेगी उससे हजार गुना अधिक विश्व
की समस्याएँ बढ़ना तय है।

धरती की सुरक्षा हेतु दिखावटी चिंता करने वाले देश के तमाम शुभचिंतको से
निवेदन है कि दिनांक 14-15 जनवरी, 2016 को स्थान झिरन्या, जिला खरगोन म. प्र.
 में आयोजित आदिवासी सांस्कृतिक एकता महासम्मेलन में जरूर आये ।

 यहाँ पर देश के लगभग सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व होगा जो अपने अपने क्षेत्रो
में सरकार व उद्योगिक लालची शक्तियो द्वारा अमानवीय व्यवहार से उपजी समस्याओं
को सुनने व समझने व आदिवासी जीवन शैली को अपनाने का सुनहरा अवसर होगा।

जरूर आये और दुनिया को विनाश से बचाने में मदद करे इसमें किसी बजट की जरूरत
नही है

आपकी जय!  प्रकृति ही जीवन है  !
www.jago.adiyuva.in | www.adivasiektaparidhad.org

On Thu, Dec 10, 2015 at 9:13 PM, AYUSH | adivasi yuva shakti <
ay...@adiyuva.in> wrote:

>
>
>
> On Sunday, November 29, 2015 at 11:04:38 PM UTC+5:30, AYUSH | adivasi yuva
> shakti wrote:
>>
>> Best Wishes to UN Conference on Climate Change (COP21/CMP11)
>> Sustainable and all inclusive development model of Adivasi Values is most
>> suitable for preserving nature and lives on planet
>>
>> प्यारिस येथे होणाऱ्या संयुक्त राष्ट्र वातावरण बदल परिषदेला सुभेच्छा !
>> निसर्ग आणि जीवन श्रुष्टी यांना जपून सर्वसमावेशक आणि सस्टेनेबल विकासाची
>> दिशा देणारी आदिवासी जीवन मुल्य हा एक आदर्श उपाय जगासाठी
>>
>>
>>
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