राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में हिन्दी

अत्यंत प्राचीन काल से हिंदी में साहित्य सृजन एवं शिक्षण की एक सुदीर्घ
परंपरा हम सबके सम्मुख रही है। लंबी साहितियक परंपरा के साथ-साथ लोक व्यवहार
में भी संपूर्ण भारत के क्षेत्रापफल को समेटती हुर्इ हिंदी 'राष्ट्रभाषा के
रूप में प्रतिषिठत है। साथ ही पिछले कर्इ दशकों से 'राजभाषा के रूप में भी
हिंदी अपने असितत्व-संघर्ष में प्रयत्नरत है। अत: प्राय: सभी प्रदेशों में
प्रचलित रहने के कारण हिंदी संपूर्ण भारत की राष्ट्र और राजवाणी रही है।
हालांकि मुगल शासन काल में पफारसी को प्रभुत्त्व मिला था, तथापि हिंदी ही देश
की अतिव्यापक भाषा बनी रही। अंग्रेजों के शासनकाल में अंग्रेजी का प्रभुत्व
स्थापित हुआ लेकिन भारतीय समाज में हिंदी का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान बना
रहा। स्वतंत्राता प्रापित के बाद संवैधनिक तौर पर हिंदी को राष्ट्रभाषा और
राजभाषा का दर्जा दिया गया, क्योंकि यह देश के प्राय: सभी भागों में संपर्क के
लिए बोली और समझी जाती है।

भारत में संविधन सभा का गठन सन 1947 में हुआ था। उसी समय यह निर्णय लिया गया
था कि सभा के कामकाज की भाषा हिंदुस्तानी या अंग्रेजी होगी। बाद में
हिंदुस्तानी के स्थान पर 'हिंदी शब्द रखा गया।

संविधन सभा की 11 से 14 सितंबर 1949 की बैठक में 'देवनागरी में लिखित हिंदी को
राजभाषा स्वीकार कर लिया गया। इस प्रकार संविधन में राजभाषा से संबंधित
व्यवस्था की गर्इ है।

राजभाषा हिंदी

14 सितम्बर 1949 से लेकर आज तक संवैधनिक प्रावधनों एवं संकल्पों के दृढ़ आधर
पर हिंदी राजभाषा के रूप में प्रतिषिठत हैं। संवैधनिक स्तर पर भी हिंदी के
अनुप्रयोगात्मक आयामों को सरकारी-गैर सरकारी कार्यालयों आदि में अपनाने पर जोर
एवं प्रोत्साहन दिया जाता रहा है। हिंदी को प्रशासनिक, कार्यालयी व व्यावसायिक
स्तरों पर प्रयोग में लाने के लिए शब्दावली निर्माण के साथ-साथ हिंदी में
कार्य करने के लिए कम्प्यूटर, टेलीप्रिंटर व अन्य यांत्रिक साध्नों की
व्यवस्था व सुविधएं प्रदान की जा रही हैं।

भारत के संविधन के अनुच्छेद 120 (1द्ध और 343 से 351 तक भारत संघ की राजभाषा
के संबंध् में अलग-अलग प्रावधन हैं। इसका प्रारंभिक उल्लेख-अनुच्छेद 343 (1द्ध
में इस प्रकार हुआ है- 'संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी।

उसी अनुच्छेद के खण्ड (2द्ध में यह व्यवस्था की गर्इ है कि इस संविधन के आरंभ
से पंद्रह वर्ष की अवधि तक संघ के प्रशासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा
का प्रयोग होता रहेगा।

अनुच्छेद 120 (1द्ध के अनुसार संसद का कार्य हिन्दी अथवा अंग्रेजी में चलाने
की व्यवस्था की गर्इ थी। इसके अतिरिक्त सदस्य विशेष को सभापति या  अध्यक्ष से
अपनी मातृभाषा में विचार व्यक्त करने का प्रावधन भी है।

अनुच्छेद 351 संविधन विषयक भाषा नीति का मुख्य अंग है। इसके अनुसार संघ सरकार
का कर्तव्य है कि वह हिंदी भाषा के विकास-प्रसार हेतु प्रयत्न करेगी, जिससे वह
सारे देश में प्रयुक्त हो सके। साथ ही हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं के
शब्दों को समाहित कर उसके शब्द भंडार को समृ( किया जाए।

सन 1963 में संसद द्वारा राजभाषा अधिनियम जारी किया गया और उसके पश्चात
राजभाषा (संशोधित) अधिनियम 1967 द्वारा घोषणा की गर्इ कि 26 जनवरी 1965 से
हिंदी राजभाषा के रूप में कार्य करेगी, साथ ही अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भी सह
राजभाषा के रूप में होता रहेगा।

सन 1976 में राजभाषा अधिनियम का निर्माण किया गया। इसके नियमों के अनुसार
तमिलनाडु को छोड़कर पूरा देश अपना कामकाजी हिंदी में कर सकता है। संवैधनिक
सिथति के अनुसार विभिन्न मंत्राालयों द्वारा राजभाषा हिंदी को विभिन्न
क्षेत्राों जैसे-  मानविकी, रेल, सूचना व प्रसारण-विज्ञान, गणित, डाक व तार
आदि की तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली की दृषिट से विकसित किया जा रहा है। हिंदी
टाइपराइटर, टेलीप्रिंटर, कम्प्यूटर आदि की सहायता से भी कार्यालयी स्तर पर
राजभाषा हिंदी को बढ़ावा दिया जा रहा है। प्रादेशिक प्रशासन में दिल्ली,
हिमाचल, हरियाणा, राजस्थान, मèयप्रदेश, उत्तरप्रदेश तथा बिहार में राजभाषा
हिंदी का प्रयोग किया जा रहा है। परंतु वर्तमान सिथति को पूरी तरह संतोषजनक
नहीं कहा जा सकता। हिंदी दिवस मना लेना ही पर्याप्त नहीं है। इसका व्यापक
प्रचार व अनुप्रयोग आवश्यक है।

राष्ट्रभाषा हिंदी

राष्ट्रभाषा का संबंध् राष्ट्रवादिता से माना जाता है। जब किसी राष्ट्र की
कोर्इ एक भाषा विभिन्न राजनीतिक, धर्मिक, सांस्Ñतिक कारणों से समग्र राष्ट्र
के सार्वजनिक प्रयोग में आ जाती है, उसमें देश की संस्Ñति एवं उसमें ब(मूल
आदर्शों की अनिवति होती है तथा उसकी प्रÑति और साहित्य में यह सामथ्र्य होती
है कि देश की अन्य भाषाओं को बिना उसकी प्रगति में बाध्क हुए अपने साथ ले चल
सके, तब वह राष्ट्रभाषा कहलाती है। हिंदी ने एक लंबी ऐतिहासिक और प्राÑतिक
प्रक्रिया से गुजर कर राष्ट्रभाषा का पद प्राप्त किया और क्रमश: बंगाली,
मराठी, गुजराती, कन्नड़ जैसे अहिंदी भाषी क्षेत्राों में भी लोकप्रिय होती जा
रही है।

वास्तव में विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्Ñतिक और व्यापारिक कारणों
से हिंदी प्राचीनकाल से ही अपने विविध् रूपों में भारत के प्राय: सभी प्रदेशों
में प्रचलित रही है। बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में यह केवल अपने मूल स्थान
दिल्ली, मेरठ के आस-पास की सीमित जनबोली थी।

लगभग छ:-सात सौ वर्षों तक यह बोली के रूप में प्रचलित रही, इसकी अपेक्षा इसके
साथ की अन्य बोलियाँ जैसे अवध्ी, ब्रज, आदि अधिक विकसित हुर्इ और 'भाषा के रूप
में उच्च साहित्य का माèयम बनीं। मुगल काल में पफारसी का प्रभुत्त्व रहा तथा
अंग्रेजों के शासनकाल में अंग्रेजी का प्रभुत्त्व स्थापित हुआ लेकिन भारतीय
समाज में हिंदी का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान बना रहा। उन्नीसवीं शताब्दी के
पूर्वार्( से ही ऐसी सिथतियां बनती गर्इ, जिनके कारण खड़ी बोली ने अत्यंत
तीव्रता से भाषा का दर्जा प्राप्त किया और लगभग एक सौ वर्ष के भीतर ही हिंदी
का मानक स्वरूप निर्धरित हो गया। स्वतंत्राता प्रापित के बाद संवैधनिक तौर पर
हिंदी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया क्योंकि यह देश के अधिकांश
भागों में बोली और समझी जाती है। साथ ही सामाजिक, राजनीतिक, सांस्Ñतिक और
साहितियक दृषिट से इसका विशेष महत्त्व है। भारत में ही नहीं, विदेशों में भी
इसके प्रयोक्ताओं की संख्या बहुत अधिक है, मारिशस, सूरीनाम, नेपाल, रूस,
जर्मनी तथा कर्इ यूरोपीय देशों में भी शिक्षण तथा साहित्य के स्तर पर हिंदी का
प्रचार-प्रसार है।

हिंदी के राष्ट्रभाषा रूप की अवधरणा मुख्यत: राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान विकसित
हुर्इ। संपूर्ण राष्ट्र को एक सूत्रा में बांध्ने, और अपनी जातीय असिमता को
जगाकर स्वतंत्राता प्राप्त करने की प्रेरणा देने के लिए सभी राजनेताओं,
विद्वानों व साहित्यकारों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया।

राष्ट्रीय विकास में उस देश की राष्ट्रभाषा के अतिरिक्त वहाँ की राजभाषा का भी
विशिष्ट महत्त्व है। दोनों में अंतर यह है कि राष्ट्रभाषा का विकास स्वत:
स्पूफर्त और प्रवाहमान होता है जबकि राजभाषा शासन तंत्रा की नीतियों के संयोजन
का साध्न। वह प्रशासनिक प्रयोजनों की भाषा होती है। किन्तु किसी भाषा को
राष्ट्रभाषा का पद जनमानस के व्यवहार के बिना नहीं मिलता।

किसी भी सभ्य समाज में या राष्ट्र में विचार-विनिमय के लिए एक ऐसी भाषा की
जरूरत होती है जो संपूर्ण समाज या राष्ट्र में समान रूप से समझी और बोली जाए।
इस व्यापक संप्रेषणीयता और सुग्राáता की दृषिट से सर्वसाधरण से लेकर शिक्षित
वर्ग तक सभी के द्वारा प्रयुक्त होने वाला हिंदी का सर्वमान्य रूप राष्ट्रभाषा
के रूप में स्वीÑत है। इस तरह अपने दोनों रूपों-राष्ट्रभाषा और राजभाषा में
हिंदी भाषा अपना दायित्व सहजता से निभा रही है क्योंकि इनमें अन्त:संबंध् है।
'राष्ट्रभाषा सम्पूर्ण देश में प्रयुक्त होने वाली सर्व-स्वीÑत भाषा होती है
जबकि प्रशासनिक कार्यों के व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली 'राजभाषा घोषित की
जाती है। समृ( देशों में राष्ट्रभाषा, राजभाषा और सम्पर्क भाषा के रूप मेंं एक
ही भाषा का प्रयोग होता है, जैसे जापान, अमेरीका, इंग्लैण्ड, प्रफांस, जर्मनी,
रूस आदि देश। इस दृषिट से भारतवर्ष भी समृ( देश है जहाँ हिंदी ही अपने तीनों
रूपों में प्रयुक्त होती है। हिंदी ही राष्ट्रभाषा भी है और राजभाषा भी तथा
सम्पर्क भाषा भी। विश्व के अनेक देशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो रहा है।
हिंदी की गुणवत्ता का अनुभव सभी राजनीतिज्ञों, शिक्षाविदों, विद्वानों, लेखकों
और सâदय सामाजिकों ने किया है। किन्तु हिन्दी के प्रगामी विकास की दिशा में
सबसे बड़ी बाध प्रयोग और व्यवहार के स्तर पर उपेक्षा और उदासीनता की है।

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