एक प्रबंधन संस्थान में एक युवा प्रशिक्षणार्थी आत्महत्या कर लेता है। वह इसका
कारण लिख कर छोड़ जाता है कि कमजोर अंग्रेजी के कारण उसे हास्यास्पद स्थितियों
से गुजरना पड़ रहा था, जो असहनीय हो गया था। ऐसी ही एक अन्य घटना में
विद्यार्थी इसी कारण से तीन महीने तक विद्यालय नहीं जाता है। घर पर सब अनभिज्ञ
हैं और जानकारी तब होती है जब वह गायब हो जाता है। ऐसी खबरें अगले दिन
सामान्यत: भुला दी जाती हैं। इस प्रकार का चिंतन-विश्लेषण कहीं पर भी सुनाई
नहीं पड़ता है कि आज भी अंग्रेजी भाषा का दबाव किस कदर भारत की नई पीढ़ी को
प्रताडि़त कर रहा है। सच तो यह है कि आजादी के बाद मातृभाषा हिंदी और अन्य
भारतीय भाषाओं के उत्थान का जो सपना देखा गया था अब वह सपना दस्तावेजों,
कार्यक्रमों तथा संस्थाओं में दबकर रह गया है। कुछ दु:खांत घटनाएं संचार
माध्यमों में जगह पा जाती हैं। समस्या का स्वरूप अनेक प्रकार से चिंताग्रस्त
करने वाला है।

देश में लाखों ऐसे स्कूल हैं जहां केवल एक मानदेय प्राप्त अध्यापक कक्षा एक से
पांच तक के सारे विषय पढ़ाता है। क्या ये बच्चे कभी उनके साथ प्रतिस्पर्धा में
बराबरी से खड़े हो पाएंगे जो देश के प्रतिष्ठित स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम
से पढ़ाई कर रहे हैं? आज उपलब्धियों के बड़े आंकड़े सामने आते हैं कि 21 करोड़
बच्चे स्कूल जा रहे हैं, 15 करोड़ मध्याह्न भोजन व्यवस्था से लाभान्वित हो रहे
हैं, स्कूलों की उपलब्धता लगभग 98 प्रतिशत के लिए एक किलोमीटर के दायरे में
उपलब्ध है आदि। यही नहीं, अधिकांश राज्य सरकारें अंग्रेजी पढ़ाने की व्यवस्था
कक्षा एक या दो से कर चुकी हैं और इसे बड़ी उपलब्धि के रूप में गिनाती भी हैं।
आज अगर भारत के युवाओं से पूछें तो वे भी यही कहेंगे- अगर उनकी अंग्रेजी अच्छी
होती या फिर वे किसी कान्वेंट या पब्लिक स्कूल में पढ़े होते तो जीवन सफल हो
जाता। आजादी के बाद के पहले दो दशकों में पूरी आशा थी कि अंग्रेजी का वर्चस्व
कम होगा। हिंदी के विरोध के कारण सरकारें सशंकित हुई जिसका खामियाजा दूसरी
भारतीय भाषाओं को भुगतना पड़ रहा है। तीन-चार दशक तो इसी में बीते कि अंग्रेजी
ेमें प्रति वर्ष करोड़ों बच्चे हाईस्कूल परीक्षा में फेल होते रहे।

प्रतिवर्ष जब शिक्षा का नया सत्र प्रारंभ होता है तब दिल्ली के पब्लिक स्कूलों
में प्लेस्कूल, नर्सरी तथा केजी में प्रवेश को लेकर राष्ट्रव्यापी चर्चा होती
है, लेकिन दिल्ली के भवनविहीन, शौचालय विहीन, पानी-बिजली विहीन स्कूलों पर कभी
चर्चा नहीं होती। प्रवेश के समय जिन पब्लिक स्कूलों की चर्चा उस समय सुर्खियों
में रहती है उसका सबसे महत्वपूर्ण कारक एक ही होता है-वहां अंग्रेजी माध्यम
में शिक्षा दी जाती है। और जहां अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाएगी,
श्रेष्ठता तो वहींनिवास करेगी। अंग्रेज, अंग्रेजी तथा अंग्रेजियत के समक्ष
अपने को नीचा देखने की हमारी प्रवृत्तिसदियों पुरानी है, लेकिन व्यवस्था ने
अभी भी उसे बनाए रखा है। बीसवींशताब्दी के उत्तारार्ध में अनेक देश स्वतंत्र
हुए थे तथा इनमें से अनेक ने अभूतपूर्व प्रगति की है। उसके पहले के सोवियत
संघ, चीन और जापान के उदाहरण हैं। जिस भी देश ने अपनी भाषा को महत्व दिया वह
अंग्रेजी के कारण पीछे नहीं रहा। रूस ने जब अपना पहला अंतरिक्ष यान स्पुतनिक
अंतरिक्ष में भेजा था तब अमेरिका में तहलका मच गया था। उस समय रूस में विज्ञान
और तकनीक के जर्नल केवल रूसी भाषा में प्रकाशित होते थे। पश्चिमी देशों को
स्वयं उनके अनुवाद तथा प्रकाशन का उत्तारदायित्व लेना पड़ा। चीन की वैज्ञानिक
प्रगति अंग्रेजी भाषा पर निर्भर नहीं रही।

आज अक्सर यह उदाहरण दिया जाता है कि चीन में हर जगह लोग अंग्रेजी बोलना सीख
रहे हैं और इसके लिए विशेष रूप से बजट आवंटित किया गया है, लेकिन यहां पर यह
उल्लेख नहीं किया जाता है कि चीन ने समान स्कूल व्यवस्था भी लागू कर ली है।
वहां कुछ विशिष्ट स्कूलों में प्रवेश के लिए उठा-पटक नहीं करनी पड़ती। चीन ने
यह शैक्षिक अवधारणा भी पूरी तरह मान ली है कि प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में
ही दी जानी चाहिए और ऐसा न करना बच्चों के साथ मानसिक क्रूरता है। मातृभाषा के
माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते हुए बच्चे अन्य भाषा आनंदपूर्वक सीखें तो यह
संर्वथा न्यायसंगत तथा उचित होगा। साठ साल से अधिक के अनुभव के बाद भी हमारी
शिक्षा व्यवस्था में अनेक कमियां बनी हुई हैं, जिनका निराकरण केवल दृढ़
इच्छाशक्ति से ही संभव है। प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक श्यामाचरण दुबे ने कहा था
कि शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य परंपरा की धरोहर को एक पीढ़ी से दूसरी तक
पहुंचाना है। इस प्रक्रिया में परंपरा का सृजनात्मक मूल्यांकन भी शामिल होता
है, लेकिन क्या हमारी शिक्षा संस्थाएं भारतीय परंपरा की तलाश कर रही हैं? क्या
वे भारतीय परंपरा की पोषक हैं? वर्तमान शिक्षा प्रणाली आज पीढ़ी और परंपरा में
अलगाव पैदा कर रही है। जनसाधारण से उसकी दूरी बढ़ती जा रही है।

आधुनिकीकरण की भ्रमपूर्ण व्याख्याओं के कारण हमारी नई पीढ़ी में धुरीहीनता आ
रही है। वह न तो परंपरा से पोषण पा रही है और न ही उसमें पश्चिम की सांस्कृतिक
विशेषताएं नजर आ रही हैं। मातृभाषा में शिक्षण के साथ अनेक अन्य आवश्यकताएं भी
हैं जो हर भारतीय को भारत से जोड़ने और विश्व को समझने में सक्षम होने के लिए
आवश्यक हैं। मातृभाषा का इसमें अप्रतिम महत्व है, इससे इनकार बेमानी होगा। ऐसे
में शिक्षा में राजनीतिक लाभ को ध्यान में रखकर बदलाव करने के स्थान पर
शैक्षणिक दृष्टिकोण से आवश्यक बदलाव लाना आज की परिस्थिति में सबसे सराहनीय
कदम होगा। भविष्य को ऐसे ही प्रभावशाली प्रयासों की आवश्यकता है।

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