मातृभाषा में शिक्षा

लेखक - प्रभाकर चौबे ।

प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। दुनिया के
और देशों में मातृभाषा की क्या स्थिति है, मातृभाषा के संरक्षण, उसकी समृध्दि
के लिए कहां क्या हो रहा है, यह तो दुनिया भर में घूमने वाले बेहतर बता सकते
हैं। हमारे देश में मातृभाषा को किस तरह जबान से, चलन से, गायब कर अंग्रेजी को
मातृभाषा बना दिया जाए, इसकी पूरजोर कोशिश की जा रही है। सरकारों से लेकर (हर
पार्टी की सरकार) कार्पोरेट और कार्पोरेट-हित-साधक अखबार, उसके प्रवक्ता बनकर
लिखने वाले सब इस जुगत में हैं कि मातृभाषा शब्द ही मानस से, बुध्दि से बाहर
हो जाए। पूछेंगे तो रटा रटाया और हर काम की तरह यहां भी भ्रम में डालने वाला
उत्तर मिल जाएगा कि मातृभाषा के विकास में हमारी सरकार भरपूर मदद कर रही है।
लेकिन एकदम उल्टा हो रहा है। हम इस झूठ, फरेब पाखंडकाल में अपनी ही वस्तुएं
नष्ट होते देख रहे हैं। सरकार की कथनी और करनी में इतनी चौड़ी खाई इससे पहले
कभी नहीं रही।

शिक्षा में इस बात को लेकर बहस होती है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी
जाए। तमाम बाल मनोवैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, विद्वानों की गुहार को दरकिनार कर
सरकारों ने कक्षा एक से अंग्रेजी पढ़ाना शुरु कर दिया। यह सिध्द हो चुका है कि
मातृभाषा में शिक्षा बालक के उन्मुक्त विकास में ज्यादा कारगर होती है।
अलग-अलग आर्थिक परिवेश के बालकों में विषय को ग्रहण करने की क्षमता समान नहीं
होती। अंग्रेजी में पढ़ाए जाने पर और कठिनाई होती है। जिनका पूरा परिवेश ही
अंग्रेजी भाषामय हो, ऐसे परिवार देश में कम ही है। मातृभाषा के माध्यम से जब
पढाया जाता है तो बालकों के चेहरे उत्फुल्लित दिखाई देते हैं। एक तो अंग्रेजी
सीखनी पड़ती है-वह पड़ी हुई नहीं मिल जाती। लेकिन सरकारों ने ठान लिया है कि
बच्चों को अंग्रेजी के माध्यम से ही पढ़ाना है। भाषा सीखना अच्छी बात है और
गुणकारी भी है। भाषा हमें एक नये संसार में प्रवेश कराती है। लेकिन मातृभाषा
की उपेक्षा कर शिक्षा के माध्यम से उसे हटाकर जिस तरह के भाषा-संस्कार डाले जा
रहे हैं, वह खतरनाक है। बालक न अंग्रेजी जान पा रहा है न मातृभाषा। एक खिचड़ी
भाषा वह भी अधजली का संस्कार मिल रहा है।

प्राय: हर पालक की शिकायत है कि उसका बच्चा छत्तीस नहीं समझता थर्टीसिक्स बोलो
तब समझता है। उनयासी कहो तो पूछता है- यह क्या होता है। सेवन्टी नाइन कहो तब
कहेगा तो ऐसा बोलो न। किसी भाषा का कोई शब्द जो पूरा अर्थ दे, अपनी भाषा में
लेना गलत नहीं है। दुनिया की हरभाषा इसी तरह ग्रहण कर समृध्द होती चली है।
हिन्दी में उर्दू, फारसी, संस्कृत सहित लोकभाषाओं के ढेरों शब्द हैं। अपनी इस
लम्बी यात्रा में हिन्दी ने बाहर से खूब ग्रहण किया है। अंग्रेजी के भी ढेरों
शब्द हैं। मोटर, रेलगाड़ी, रोड, टाईम शब्द हिन्दी के हो गए हैं। काफी समय हो
गया। पिछली पीढ़ी पढ़ने के लिए अपना गांव छोड़ शहर में आई तो बाल बनवाने के
लिए उसका परिचय हेयर कटिंग सेलून से हुआ और वह बाल बनवाने नहीं, कटिंग करवाने
जाता। इन सबसे हिन्दी समृध्द हुई है। आज मोबाइल के साथ 'मिस कॉल' आया और
गांव-गांव में रच बस गया। एक ठन मिस काल मार देबे- आम अभिव्यक्ति है। ई-मेल,
इंटरनेट, कम्प्यूटर, लैपटॉप, फेसबुक आदि शब्द हिन्दी में चल निकले। इनका
हिन्दी में अनुवाद करना हास्यास्प्रद होना है। यह भी विचार करना चाहिए कि किसी
और भाषा से शब्द लेना एक बात है, लेकिन खिचड़ी वाक्य बनाना निरी मूर्खता है।
दिक्कत यह है कि हमारे हिन्दी के कुछ समाचार पत्र ऐसी भाषा लिखने लगे हैं जो
हास्य एपिसोड में तो काम आ सकती है, भाषा की गम्भीरता का मजाक बनाती है। ऐसे
अखबारों ने कार्पोरेट होने का भ्रम पाल रखा है।

आज ऐसे लोग पूरा भाषा-संस्कार भ्रष्ट कर रहे हैं। शब्द लेना ठीक, लेकिन हमारी
भाषा के सर्वनाम, संज्ञा, क्रिया और तो और पूरा वाक्य विन्यास का सत्यानाश
करने में तुल गए हैं। स्टुडेंट्स ने फेस्टीवल इन्जाय किया यह कैसी भाषा है।
लिखित और बोलने के वाक्य में फर्क होता है। दरअसल न तो इन्हें मातृभाषा आती न
अंग्रेजी। बहुत पहले जब अंग्रेज आए तो उनके नौकर जो भाषा बोलते उसे बटलर भाषा
कहा जाता। अगर समाज में कोई ऐसी भाषा बोलता तो उसका मजाक उड़ाया जाता कि क्या
बटलर भाषा बोल रहे हो। अगर हम हिन्दी की ही बात करें तो कार्पोरेट उसके
व्यावसायिक उपयोगिता समझता है। हिन्दी बाजार की, धंधे की विज्ञापन की भाषा के
रूप में कार्पोरेट को स्वीकार है। केन्द्र सरकार ने अपने कार्यालयों में
हिन्दी में कामकाज को बढ़ावा देने का उपक्रम किया है। हर साल 14 सितम्बर को
हिन्दी दिवस मनाया जाता है। लेकिन कार्पोरेट में हिन्दी का कामकाज के लिए कोई
जगह नहीं है। हिन्दी उनके उत्पाद के व्यापार के लिए स्वीकार्य है। अंग्रेजी
माध्यमों के विद्यालयों में जिस तरह अंग्रेजी की शिक्षा दी जा रही है वह केवल
सेल्समैन पैदा करने के काम आ रही है। पुराने मेट्रिक पास अच्छी अंग्रेजी लिखा
करते थे। ऊंची से ऊंची नौकरी पाने के लिए, ज्ञान अर्जित करने के लिए अंग्रेजी
सीखना, अंग्रेजी में निष्णात होना बहुत अच्छी बात है, जरूरी भी है। लेकिन
मातृभाषा की कीमत पर अंग्रेजी नहीं सीखी जा सकती ऐसा करने पर आधा तीतर आधा
बटेर की स्थिति होगी।

अंग्रेजी माध्यम के कुछ विद्यालयों में विद्यालय परिसर में हिन्दी या मातृभाषा
में बात करते पाए जाने पर दंडित किया जाता है। कुछ विद्यालय तो एकदम आगे हैं,
वे माता-पिता की शैक्षणिक योग्यता को बच्चों के प्रवेश का आधार बनाते हैं।
बहरहाल एक बड़ा वर्ग मातृभाषा की उपयोगिता समझता है। जालंधर की एक खबर छपी है।
वहां तमाम सरकारी स्कूलों और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों ने सामूहिक रूप से 21
फरवरी को मातृभाषा दिवस मनाया। बच्चों ने, विद्यालय समितियों ने एक स्वर से
पंजाबी बोलने पर जोर दिया। इनमें कुछ-कुछ ऐसे विद्यालय भी शामिल हुए जिनके
विद्यालयों में पंजाबी बोलना प्रतिबंधित था। आज सबने मातृभाषा का महत्व समझा।
लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर और किसी राज्य में कोई कार्यक्रम हुआ
ऐसा पढ़ने में नहीं आया। दरअसल शिक्षा का अधिकार का सवाल मातृभाषा में शिक्षा
के साथ जुड़ा है। अपनी भाषा में शिक्षा प्राप्त करना बच्चे का अधिकार है, उस
पर दूसरी भाषा लाद देना उसके स्वाभाविक विकास में बाधा डालना भी है।

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